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३४०] श्रीमवचनसार भाषाटीका। अभ्यास सदा ही उपयोगी है । सम्यक्त होने के पीछे सम्यग्चारित्रकी पूर्णता व सम्यग्ज्ञानकी पूर्णताके लिये भी जिनवाणीका अभ्यास कार्यकारी है। इस पंचमकालमें तो इसका आलम्बन हरएक मुमुक्षुके लिये बहुत ही आवश्यक है क्योंकि यथार्थ उपदेष्टाओंका सम्बन्ध बहुत दुर्लभ है। जिनवाणीके पढ़ते रहनेसे एक मूढ़ मनुष्य भी ज्ञानी हो जाता है। आत्महितके लिये यह अभ्यास परम उपयोगी है। स्वाध्यायके द्वारा मात्मा ज्ञान प्रगट होता है, कषायभाव घटता है, संसारसे ममत्व हटता है, मोक्ष भावसे प्रेम जगता है । इसीके निरंतर अभ्याससे मिथ्यात्वकर्म और अनंतानुबन्धी कषायका उपशम हो जाता है और सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता है । श्री अमृतचंद्र आचार्यने श्री समयसार कल. शमें कहा है:
उभयनविरोधध्वंसिनि स्याद पदांके:जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परमज्योतिरुच्चै--
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।। भावार्थ-निश्चयनय और व्यवहारनयके विरोधको मेटनेवाली स्याहादसे लक्षित जिनवाणीमें जो रमते हैं वे स्वयं मोहको वमनकर शीघ्र ही परमज्ञानज्योतिमय शुद्धात्माको जो नया नहीं है और न किसी नयकी पक्षसे खंडन किया जा सका है देखते ही हैं।
यह स्वाध्याय श्रावक धर्म और मुनि धर्मके पालनमें भी उपकारी है । मनको अपने आधीन रखने में सहाई है। ..