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श्रीभवचनसार मापाटीका । [३४१ श्री गुणभद्राचार्य अपने आत्मानुशासनमें इस भांति कहते हैंअनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभाराति विनते । वचः पीकर्णि विपुलनयशापाशतयुते ॥ समुत्तंगे सम्यक् प्रततमति मूले प्रतिदिनं । श्रुतस्कन्धे धीमान रमयतु मनो मर्कटममुम् ॥ १७ ॥
भावार्थ-बुद्धिमान पुरुष अपने मनरूपी चन्दरको प्रतिदिन शास्त्ररूपी वृक्षके स्कंधमें रमावे, जिप्त वृक्षकी जड़ सम्यक् व गाढ़ बुद्धि है, जो नाना नयरूपी सैकडों शाखाओंसे ऊंचा है, जिसमें वाक्यरूपी पत्ते हैं व नो अनेक धर्मरूप पदार्थोके बड़े २ फोकि भारसे नम्र है।
ऐसा जानकर जब आत्मामें शुद्धोपयोगकी भावना यों ही न होसके तम शास्त्रों के स्वाध्याय के द्वारा भावको निर्मल करते रहना चाहिये । यह शास्त्रका अभ्यास मोक्ष मार्गकी प्राप्तिके लिये एक प्रवल सहकारी कारण है ॥ ९३ ॥ ____उत्थानिका-भागे द्रव्य, गुण पर्यायोंको अर्थसंज्ञा है ऐसा कहते हैं:दव्वाणि गुणा तेसिंपज्जाया अहसण्णया भणिया। तेलु गुणपज्जयाणं अप्पा व्यत्ति उवदेसो ॥१४॥
द्रव्याणि गुणास्तेषां पर्याया अर्थसंशया भणिताः । तेषु गुणपर्यायाणामात्मा द्रव्यमित्युपदेशः ॥ ९४ ॥
सामान्यार्थ-द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायोंको अर्थ नामसे कहा गया है । इनमें गुण और पर्यायोंका सर्वस्व द्रव्य है ऐसा उपदेश है।