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श्रीभवचनसार भाषाका ४३. को मोलमा परंपरा कारण कहा गया है। इस शुभोपयोग जितना अंश रागभाव होता है उससे अघातिया फर्मोकी एप. प्रकृतियोंका बंधन होकर पुन्य प्रतियोंका बंध होता है इसीसे शुभोपयोगी शुभ नाम, उच्च गोत्र, साता वेदनीय तथा देवाथु बांधकर स्वर्गीमें अतिशय सातामें मग्न देव होजाता है। वहां क्षुधा तृषा रोगादि व धन लामादिकी पाकुलताओंसे तो छूट जाता है किन्तु केवल आकुझतामई इन्द्रिय जनित भुख भोगता है तथापि यहां भी शुद्धोप. योगकी प्राप्तिकी भावना रहती है जिससे वह ज्ञानी आत्मा उन इंद्रिय सुखोंमें तन्मय नहीं होता है किन्तु उनको शाकुलताके कारण मानके उनके छुटने व मतीन्दय आनन्दके पानेका उत्सुक रहता है । इससे स्वर्गका सम्यग्दृष्टी मात्मा इस मनुष्य भवमें योग्य सामग्रीका सम्बन्ध पाता है जिससे शुद्धोपयोग रूप परिणमन कर सके। ____तात्पर्य इस गाथाका यह है कि अनुमोपयोगसे बचकर शुद्धोपयोगमे रममेकी चेष्टा करनी योग्य है। यदि शुद्धोपयोग न होसके तो शुभोपयोगमें वर्तना चाहिये तथापि इस शुभोपयोगको उपादेय न मानना चाहिये
उत्थालिशा-आगे कहते हैं कि निस किमी आत्मामें वीतराग या सराग चारित्र नहीं है उसके भीतर अत्यन्त त्यागने. योग्य अशुभोपयोग रहेगा उस अशुभयोगका फल कटुक होता है। भानुहोघेण आदा कुणरो तिरियो भवीय रह्यो । सुक्खसहरसहि सदा अभिधुदो भमइ अचंतं ॥१२॥