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४२] श्रीअपचनसार भाषाटीका । कारण है । श्री अमृतचंद्र आचार्यने समयसार कलशामें कहा है
दर्शनज्ञानचारित्रश्यात्मा तत्वमात्मनः।। एक एव सदा सेन्यो मोक्षमार्गों मुमुक्षुणा ॥ ४६॥ एको मोक्षपयो य एष नियतो दम्ज्ञप्तिवत्सारमक स्तत्रैव स्थिविमोति यस्तमनिशं ध्यायेद्य संचेतति । तस्मिन्मेव निरंतरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् । सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥४७॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमई शात्माका स्वभाव है । मो मोक्षका इच्छुक है उसे इसी एक मोक्षमार्गकी सदा सेवा करनी योग्य है । निश्श्रयमे यही एक दर्शन ज्ञावचारित्रमई मोक्षफा मार्ग है । जो कोई इसी मार्गमें ही ठहरता है, हमीको ही रात दिन ध्याता है, इसीका ही अनुभव करता है, इसी ही निरंतर विहार करता है तथा अपने आत्माके सिवाय अन्य द्रव्योंको जो स्पर्श नहीं करता है वही जीप नित्य प्रकाममाल शुखात्माका अवश्य ही स्वाद लेता है। इसलिये शुद्धोपयोग साक्षात मोक्षका कारण होनेसे उपादेय है । परन्तु जिस किसीफा उपयोग शुद्ध भावमें नहीं जमता है वह शुभोपयोगमें उपयुक्त होता है। शुद्धोपयोगमें व शुद्धोपयोगके धारक पांच परमेष्टीमें जो प्रीतिभाव तथा इस प्रीति भावके प्रदर्शनके निमित्तोंमें मो प्रेम उसको शुभोपयोग कहते हैं । इस शुभोपयोगी ज्ञानी जीय यद्यपि वर्तन करता है तथापि अंतरंग भावना शुद्धोपयोगके लाभकी होती है । इसी कारणसे ऐमा शुभोपयोगर्ने वर्तना शीघ्र शुद्धोपयोगकी तरफ उपयोगको मुड़ने के लिये निमित्त कारण है; इसीसे इस शुभोपयोग