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________________ १२८] श्रीमवचनसार भाषाटीका । नहीं जानते हैं ? उसके लिये कहते हैं कि यद्यपि भिन्न हैं तथापि व्यवहार नयसे (सो) वह भगवान (गिरवसेसं सव्व) विना अव. शेषके सर्वको ( समंतः ) सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंके साथ ( पेच्छदि ) देखते हैं तथा (नाणदि ) जानते हैं। अथवा इसीका दूसरा व्याख्यान यह है कि केवली भगवान भीतर तो काम क्रोधादि भावोंको और बाहरमें पांचों इंद्रियों के विषयरूप पदार्थीको ग्रहण नहीं करते हैं न अपने मात्माके अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयको छोड़ते हैं। यही कारण है जो केवलज्ञानी आत्मा केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कालमें ही एक साथ सर्वको देखते जानते हुए अन्य विकल्परूप नहीं परिणमन करते हैं। ऐसे वीतरागी होते हुए क्या करते हैं ? अपने स्वभावरूप केवलज्ञानकी ज्योतिरसे निर्मल स्फटिक मणिके समान निश्चल चैतन्य प्रकाशरूप होकर अपने आत्माको अपने आत्माके द्वारा अपने आत्मामें जानते हैंअनुभव करते हैं । इसी कारपसे ही परद्रव्यों के साथ एकता नहीं है भिन्नता ही है ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने मात्माकी तथा उसके ज्ञानकी महिमाको और भी साफ कर दिया है तथा यह समझा दिया है कि कहीं कोई आत्माके ज्ञानको सर्व व्यापक और शेयोंका ज्ञानमें प्रवेश सुन कर यह न समझ बैठे कि ज्ञान आत्मासे बाहर आनात्मामें चला गया या ज्ञेय पदार्थ अपने क्षेत्रको त्याग आत्मामें प्रवेश कर गये । केवली भगवान परम वीतरागी निन स्वभावमें रमणकर्ता स्वोन्मुखी तथा निजानन्दरस भोगी हैं। वे भगवान अपने आत्मीक स्वभावमें तिष्ठिते हुए अपने अनन्त ज्ञान दर्शन
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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