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श्रीप्रक्वनसार भाषाका । [ २८१
रोगादिकी पीड़ा होनेसे कष्ट होता है वैसे इंद्रियोंकी विषयवाह द्वारा जो शक्ति पैदा होती है और उस आशक्तिके वश किसी पर पदार्थ में यह रंजायमान होता है उस समय क्षणभरके लिये जो अज्ञानसे सावासी मालूम पड़ती है उसीको सुख कहते हैं, सो वह उस क्षणके पीछे तृष्णाको बढ़ानेसे व पुनः विषयभोगकी इच्छाको जगानेसे तथा राग गर्भित परिणाम होनेसे बंधकारक है इस कारण से दुःख ही है । ऋतवमें सांसारिक सुख सुख नहीं है किन्तु घनी विषय चारूप पीड़ाको कुछ कमी होनेसे दुःखकी जो कभी कुछ देके लिये होगईं हैं उसीको व्यवहार में सुख कहते हैं। असल में दुःखकी अधिकताको दुःख व उसकी कमीको सुख कहते हैं । यह कमी अर्थात सुखाभास और अधिक दुःखके लिये कारण है । जैसे कोई मनुष्य नंगे पग ज्येष्ठकी धूपकी आता पमें चला जाता हुआ गर्मी दुःखसे अति दुःखी हो जंगलमें कहीं एक छायादार वृक्ष देखकर वहां घबड़ाकर जाकर विश्राम करता है। जबतक वह ठहरता है तबतक कुछ गरमीके कम होनेसे उसको सुखसा भासता है। वास्तव में उसके दुःखकी कमी हुई है फिर जैसे ही वह चलने लगता है उसको अधिक गरमीकी पीड़ा सताती है । इसी तरह सांसारिक सुखको मात्र कोई दुःखकी कुछ देर के लिये शांति समझनी चाहिये। जहां पहले व पीछे माकुलता हो
चह
जिस कैसे ? वह तो दुःख ही हैं ।
श्री गुणभद्राचार्य श्री मात्मानुशासनमें कहते हैं
स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखं । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥ ४६ ॥