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श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
और परको
ज्ञानका ऐसा महात्म्य है कि आपको भी जानता है भी जानता है । आप पर दोनों ज्ञेय हैं तथा ज्ञायक आप है ।
सर्व जगतमें प्रवेश
तत्र व्यवहारसे ऐसा कहे कि आत्माका ज्ञान कर गया व सर्व जगतके पदार्थ ज्ञानमें प्रवेश दोष नहीं है ।
कर गए वो कुछ
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ज्ञान सर्वज्ञेय पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ता है जो ज्ञानाकार पदार्थों का ज्ञान में होता है उनके निमित्त कारण बाहरी पदार्थ हैं। इसलिये उपचारसे उन ज्ञानाकारोंको पदार्थ कहते हैं । ज्ञान अपने ज्ञानाकारोंको जानता है इसीको कहते हैं कि ज्ञान पदार्थोंको जानता है । ज्ञानमें ज्ञानाकारों का भेद करके कहना ही व्यवहार है । निश्चयसे ज्ञान आप अपने स्वभावमें ज्ञायकरूपसे विराजमान है- ज्ञेय ज्ञायकका व्यवहार करना भी व्यवहारनयसे है । यहां यह तात्पर्य है कि ऐसा केवलज्ञान इस संसारी आत्माको निश्चय रत्नत्रयमई परम सामायिक संयमरूप स्वात्मानुभवमईं शुद्धोपयोग द्वारा प्राप्त होता है इसलिये हरतरहका पुरुषार्थ करके इस साम्यभावरूप शुद्धोपयोगका अभ्यास करना योग्य है । यही परम सामायिकरूप शांतभाव है इस ही भावके द्वारा यह आत्मा यहां भी आनंद भोगता है और शुद्धि पाता हुआ सर्वज्ञ हो अनन्त सुखी हो जाता है।
उत्थानका - भागे पूर्व सूत्रसे यह बात कही गई कि व्यवहारसे ज्ञान पदार्थों में वर्तन करता है अब यह उपदेश करते हैं कि पदार्थ ज्ञानमें वर्तते हैं ।