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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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ज्ञान में सर्व ही ज्ञेय सदाकाल प्रत्यक्ष रहते हैं, कोई भी कहीं भी. कभी भी कोई पदार्थ या गुण या पर्याय ऐसी नहीं हैं जो केवलज्ञानीके ज्ञानसे परे हो या परोक्ष हो, इसोको सर्वज्ञता कहते हैं ।. केवलज्ञानमें सबसे अधिक अविभाग परिच्छेद होते हैं, उत्कृष्ट अनंतानंतका भेद यहीं प्राप्त होता है । इस लिये षट्द्रव्यमयी उपस्थित समुदाय के सिवाय यदि अनन्तानन्त ऐसे समुदाय हों तौ भी केवलज्ञान में जाने जा सक्ते हैं। ऐसी अपूर्व शक्ति इस आत्माको शुद्धोपयोग द्वारा प्राप्त होती है ऐसा जानकर आत्मार्थी नीवको उचित है कि रागद्वेष मोहका त्याग करके एक मनसे साम्यभाव या शुद्धोपयोगका मनन करे, यही तात्यये है ।
इस तरह केवलज्ञानियोंको सर्व प्रत्यक्ष होता है ऐसा कहते हुए प्रथम स्थलमें दो गाथाए पूर्ण हुईं ॥ २२ ॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि आत्मा ज्ञान प्रमाण तथा ज्ञान व्यवहार से सर्वगत है
आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्यमाणमुद्दिहं । यं लोगालोग, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ २३ ॥
आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्ठं ।
ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सवगतम् ॥ २३ ॥
सामान्यार्थ - आत्मा ज्ञानगुणके बराबर हैं, तथा ज्ञान ज्ञेय पदार्थों के बराबर कहा गया है और ज्ञेय लोक और भलोक हैं इसलिये ज्ञान सर्वगत या सर्वव्यापक है ।
अन्वय सहिन विशेषार्थ - ( जादा णाणपमाणं )