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श्रीभवचनसार भापाटीका। [२३३ वाले सर्व अनिष्ट अर्थात् दुःख और ज्ञान नष्ट होगए तथा पूर्वमें कहे हुए लक्षणको रखनेवाले सुखके साथ अविनामूत अवश्य होनेवाले तीन लोकके भेदर रहनेवाले सर्व पदार्थीको एक समय में प्रकाशने वाला इष्ट ज्ञान प्राप्त होगया इसलिये यह माना जाता है कि केवलियोंके ज्ञान ही सुख है ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भाचार्य केवलज्ञानके सुख स्वरूपपना किस अपेक्षा है इको स्पष्ट करते हैं और यह बात दिखलाते हैं कि संसारमें दुःराक मारण अज्ञान और कषायजनित आकुलता है । सो ये दोनों ही बात केवलज्ञानीके नहीं होती हैं। भावरणों के नाश होनेसे केवलज्ञान और केवलदर्शन पूर्णपने प्रगट होजाते हैं जिनके द्वारा सर्व लोक और मलोक प्रत्यक्ष देखा तथा जाना जाता है । इसलिये कोई तरहका अज्ञान नहीं रहता है-तथा मज्ञानके सिवाय और नो कुछ अनिष्ट था सो भी केवलज्ञानीके नहीं रहा है। रागद्वेषादि कपाय परिणामोंमें विकार पैदा करके आकुलित करते हैं तथा निर्मलता होनेसे खेद होता है सो मोहनीय कर्म और अंतराय कर्मों के सर्वथा अभाव होनानेसे न कोई प्रकारका रागद्वेष न निर्वलता ननित खेदभाव ही रहनाता है। भात्माके स्वभावके घातक सब विकार हट गए तथा स्वभावको प्रफुल्लित करनेवाले अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि गुण प्रगट होगए । अर्थात् अनिष्ट राव चला गया तथा इष्ट सब प्राप्त होगया । केवलज्ञानके प्रगट होते ही आत्माका यथार्थ स्वभाव जो आत्माको परम हितकारी है सो प्रगट होमाता है। केवलज्ञान के साथ ही पूर्ण निराकुलता रहती है। इस लिये केवलज्ञानको सुखस्वरूप कहा