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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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उत्थानका - मागे कोई शंका करता है कि जब केवल - ज्ञानमें अनन्त पदार्थों का ज्ञान होता है तब उस ज्ञानके होने में अवश्य खेद या श्रम करना पड़ता होगा । इसलिये वह निराकुळे नहीं है । इस शंकाका समाधान करते हैं
जं केवलति णाणं, तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो, जम्हा घादी खयं जादा ॥ ६०॥
यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं परिणमश्च स चैव ।
खेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ॥ ६० ॥
सामान्यार्थ - नो यह केवलज्ञान है वही सुख है तथा वही आत्माका स्वाभाविक परिणाम है, क्योंकि घातिया कर्म नष्ट होगए हैं इसलिये उस केवलज्ञानके अंदर खेद नहीं कहा गया है।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (नं केवलत्ति णाणं) जो यह केवलज्ञान है ( तं सोक्खं) वही सुख है (सो चैव परिणमं च ) तथा वही केवलज्ञान सम्बन्धी परिणाम आत्माका स्वाभाविक परि
मन है । (जम्हा) क्योंकि ( घादी खयं जादा ) मोहनीय आदि घातिया कर्म नष्ट होगए (तस्स खेदो ण भणिदो) इस लिये उस अनंत पदार्थोंको जाननेवाले केवलज्ञानके भीतर दुःखका कारण खेद नहीं कहा गया है । इसका विस्तार यह है कि जहां ज्ञानावरण दर्शनाचरणके उदयसे एक साथ पदार्थोंके जाननेकी शक्ति नहीं होती हैं किंतु क्रमक्रमसे पदार्थ जाननेमें आते है वहीं खेद होता है । दोनों दर्शन ज्ञान आवरणके अभाव होनेपर एक साथ सर्व पदाथको जानते हुए केवलज्ञानमें कोई खेद नहीं है किंतु सुख ही