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१५८] श्रीभवचनसार भाषाटीका। यह मतिज्ञान क्षेत्र व कालसे दूर व सुक्ष्म परमाणु, आदिको नहीं जान सक्ता है। जो श्रुतमान सैनी जीवमें मन द्वारा काम करता है सो भी अपना उत्कष्ट क्षयोपशम इतना ही रखता है कि श्री आचारांगादि द्वादश अंगों को जानसके। यह ज्ञान भी बहुत थोड़ा है तथा क्रमसे प्रवर्तन करता है। 'जितना केवलज्ञानी जानते हैं उसका अनन्तवा भाग दिव्यध्वनिसे प्रगट होता। जितना दिव्यध्वनिसे प्रगट होता उतना गणवरोंकी धारणामें नहीं रहता इससे दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट ज्ञानका कुछ अश धारणा रहता है सो द्वादशांगड़ी रचनारूप है। श्रुतज्ञान' इससे अधिक जान नहीं सक्ता । अवधिज्ञान यद्यपि इन्द्रिय और मनद्वारा नहीं होता वहां आत्मा ही प्रत्यक्ष रूपसे जानता है तथापि इस ज्ञानका काथ्ये उपयोग जोड़नेसे होता है जिसमें मनके विकल्पका सहारा होजाता है तथा यह ज्ञान मात्र मूर्तीक पदार्थाको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादारूप जानता है । अनन्त द्रव्यों: को, अनन्त क्षेत्रको, अनन्त कालको व अनन्त भावोंको नहीं जानसक्ता । मनःपर्यायज्ञान भी यद्यपि प्रत्यक्ष है तथापि मन द्वारा विचारनेपर काम करता है इससे मनके विकल्पकी सहायता है तथा यह ढाई द्वीप क्षेत्रमें रहनेवाले सैनी जीवों के मन में तिष्ठते हुए मूर्तीक पदार्थको जानता है । यद्यपि यह अवधिज्ञानके विषयसे सूक्ष्म विषयको जानता है तथापि बहुत कम जानता, व बहुत कम क्षेत्रकी जानता है। ये चारों ही ज्ञान किसी अपेक्षासे इन्द्रिय और अनिद्रिय अर्थात् कुछ इन्द्रिय रूप मनकी सहायतासे होते हैं इसलिये इनको इन्द्रिय ज्ञानमें गर्मित' करसके हैं। आचार्यका