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१२] श्रीप्रवचनसार भाषा का। . गुरु द्वारा उपदेश लाम करनेसे व उनकी सेवा आहार दानादि द्वारा करनेसे होती है-शास्त्रकी भक्ति शास्त्रोंको अच्छी तरह पढ़ या सुनकर भाव समझनेसे तथा उनकी विनय सहित रक्षासे होती है। क्योंकि जैन धर्म मात्माका स्वभाव रत्नत्रयमई है इसलिये इस धर्मके मादर्श देव, इसके उपदेष्टा गुरु व इसके बतानेवाले शास्त्र अत्यंत आवश्यक हैं । आदर्शसे ध्यानके फलका लक्ष्य मिलता है। गुरुमे ध्यानका उपदेश मिलता है, तथा शास्त्रसे ध्यानकी शेतियां व कुध्यान सुध्यानका भेद झलकता है। धर्मके इच्छुक साधारण गृहस्थ के लिये धर्मलाभका यही उपाय है। लौकिकमें भी किसी कलाको सीखनेके लिये तीन बातें चाहिये--कलाका दर्शन, कलाका उपदेश तथा कला बतानेवाला शास्त्र । यद्यपि सिद्ध 'परमात्मा सर्वसे महान हैं तथापि शास्त्रका उपदेश जो अशरीर . सिद्धात्मासे नहीं होसका सशरीर महंत द्वारा हमको मिलता है इसलिये उपकार विचारकर इस णमोकार मंत्रमें पहले अहंतोंको नमस्कार करके पीछे सि को नमस्कार किया है। उत्कृष्ट अंत-रात्माओंमें भी यद्यपि साधु बड़े हैं क्योंकि श्रेणी आरूढ़ यतीको साधु कह सक्ते हैं पर भाचार्य तथा आध्याय नहीं कह सके तथापि अपने उपकार पहुंचनेकी अपेक्षा आचार्यको पहले जो दिक्षा शिक्षा दोनों देते व संघकी रक्षा करते फिर उपाध्यायोंको जो शिक्षा देते फिर सर्व अन्य साधुओंकों नमस्कार किया है क्योंकि साधुओंमें संघ प्रबन्ध व धर्मोपदेश देनेकी मुख्यता नहीं है। यहां बहु वचन इसलिये दिया है कि ये पांच परमपद हैं। इनमें तिष्ठनेवाले अनेक हैं उन सर्व ही महत, सिद्ध आचार्य,