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२००] श्रीभवचनसार भाषाटीका । अर्थात् मिन शासनमें जिस प्रत्यक्ष ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं यह ज्ञान ( जुगवं ) एक समगमें ( सम्वत्य संभव ) सर्व लोकालोकमें स्थित (चित्त ) तथा नाना नाति भेदमे विचित्र (सयलं) सम्पूर्ण ( तेकालणिञ्चविप्सम ) तीनकाल सम्बन्धी पदार्थों को सदाकाल विसमरूप अर्थात् जैसे उनमें भेद है उन भेदोंके साथ अथवा तेकाल णिच्चविस्थं ऐमा भो पाठ है जिसका भाव है तीनकाल सर्व द्रव्य अपेक्षा नित्य पदार्थो को (जाणदि) जानता है। (अहो हि माणस्त माह) अहो देखो निश्चयसे ज्ञान का माहात्म्य आश्चर्यकारी है । भाव विशेष यह है कि एक समयमें सर्वको ग्रहण करनेवाले ज्ञान ही सर्वज्ञ होता है ऐसा मानकर क्या करना चाहिये सो कहते हैं। ज्योतिप, मंत्र, वाद, रस सिद्धि आदिके जो खंडज्ञान हैं तथा जो नूह जीवोंके चित्तमें चमत्कार करनेके कारण हैं और जो परमात्माकी भावनाके नाश करनेवाले हैं उन सर्व ज्ञानोंमें आग्रह या हठ त्याग करके तीन जगत व तीनकालकी सर्व वस्तुओं को एक समयमें प्रकाश करनेवाले, अविनाशी तथा अखंड और एक रूपसे उघोतरूप तथा सर्वज्ञत्व शब्दसे ऋइने योग्य जो केवलज्ञान है, उसकी ही स्पत्तिका कारण जो सर्व रागद्वेषादि विकास जालोंसे रहित स्वाभाविक शुद्वात्माका अभेद ज्ञान अर्थात् स्वानुभक रूप ज्ञान है उसमें भावना करनी योग्य है । यह तात्पर्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी केवलज्ञानके गुणानुवाद गाकर अपनी अकाट्य श्रृद्धा केवलज्ञानमें प्रगद करी है। और यह समझाया है कि लोकालोकमें विचित्र पदार्थ है तथा