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श्रीभवचनसार भाषाटीका। २०१ उनकी तीन काल सम्बन्धी अवस्थाएं एक दुसरेसे भिन्न हुआ करती हैं उन सबको एक कालमें जैसा का तैसा जो जान सक्का है उसको ही केवलज्ञान कहते हैं । तथा यह केवलज्ञान वह ज्ञान है जिसको जैन शासनमें प्रत्यक्ष, शुद्ध, स्वाभाविक तथा अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं । जिसके प्रगट होनेके लिये व काम करनेके लिये किसी अन्यकी सहायताको आवश्यक्ता नहीं है । न वह इन्द्रियोंके आश्रय है और न वह पदार्थोके आलम्बनसे होता है, किन्तु हरएक आत्मामें शक्ति रूपसे विद्यमान है । जिसके ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय हो जाता है उसीके ही यह प्रकाशमान हो जाता है । जब प्रकाशित हो जाता है फिर कभी मिटता नहीं या कम होता नहीं। इसी ज्ञानके धारीको सर्वज्ञ कहते हैं। परमात्माकी बड़ाई इसी निर्भल ज्ञानसे है। इसी हीके कारणसे किसी वस्तु के जाननेकी चिंता नहीं होती है । इसीसे यही ज्ञान सदा निराकुश है। इसीसे पूर्ण आनन्दके मोगमें सहायी है। ऐसे केवलज्ञानकी प्रगटता जैनसिद्धांत में प्रतिपादित स्याहाद नयके द्वारा आत्मा
और अनात्माको समझकर भेदज्ञान प्राप्त करके और फिर लौकिक चमत्कारोंकी इच्छा या ख्याति, लाभ, पूजा आदिकी चाह छोड़कर अपने शुद्धात्मामें एकाग्रता या स्वानुभव प्राप्त करनेसे होती है। इसलिये स्वहित बांछकको उचित है कि सर्व रागादि विकल्प जालोंको त्याग कर एक चित्त हो अपने मात्माका स्वाद लेकर । परमानंदी होता हुआ तृप्ति पावे।
इस प्रकार केवलज्ञान ही सर्वज्ञपना है ऐसा कहते हुए गाथा एक, फिर सर्व पदार्थों को जो नहीं जानता है वह एकको भी नहीं