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. . . . . श्रीप्रवचनसार भाषाटीका।.. १९९ मल्प विषयपना होनेका कारण यही है कि वे ज्ञानावरणीय कर्मक क्षयोपशमसे होते हैं, जब कि केवलज्ञान सर्व ज्ञानावरणीयके क्षयसे. होता है। इसलिये यही ज्ञान क्षायिक है । जब चारों ज्ञानोंका विषय अल्प है तब वे सर्वगत नहीं होसक्ते, यह केवलज्ञान ही है जो सर्व पदार्थोंको एक काल जानता है इससे सर्वगत या सर्व व्यापी है।
केवलज्ञानके इस महात्म्यको जानकर हमको उसकी प्राप्तिके लिये शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका अभ्यास करना चाहिये । तथा यह निश्चय रखना चाहिये कि इन्द्रियाधीन ज्ञानवाला कभी सर्वज्ञ नहीं होमक्ता । जिसके अतीन्द्रिय स्वाभाविक प्रत्यक्ष ज्ञान होगा वही सर्वज्ञ है ॥ ५० ॥
उत्थानिका-आगे फिर यह प्रगट करते हैं कि जो एक समयमें सर्वको जानसका है उस ही ज्ञानसे ही सर्वज्ञ होसका है। तेकालणिचविसमं सकलं सव्वत्थ संभवं चित्तं । जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ५१ - काल्यनित्यविपमं सकलं सर्वत्र संभवं चित्रम् ।
युगपजानाति जनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ॥५१॥
सामान्यार्थ-जनका ज्ञान जो केवलज्ञान है जो एक समयमें तीन कालके असम पदार्थीको सदाकाल सवको सर्व लोकमें. होनेवाले नाना प्रकारके पदार्थोको जानता है । अहो निश्चयसे ज्ञानवा महात्म्य अपूर्व है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( जोण्डं ) जैनका ज्ञान