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- श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३४५ ज्ञानादेव ज्वलनपयसो रोष्ण्य शैत्यव्यवस्था । ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः ॥ ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः । क्रोधादेश्व प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तभावम् ॥६॥
भाव.यह है कि पदार्थके यथार्थ ज्ञानसे ही गर्म पानीके भीतर गर्मी अग्निकी है, पानी शीतल होता है, यह बुद्धि होती है। एक नमकीन व्यंजनमें निमकपना लवणका तथा तरकारीका स्वाद अलग है यह ज्ञानपना प्रगट होता है इसी तरह आत्मा
और अनात्माके विवेक ज्ञानसे ही मविनाशी चैतन्य प्रभु मात्मा भिन्न है तथा क्रोधादि विकारकी कलुषताको रखनेवाला सुक्ष्म कार्माण पुद्गल स्कंध अलग है यह तत्वज्ञान होता है, तब यह अज्ञान मिट जाता है कि मैं चेतन क्रोधादिका कर्ता हूं व क्रोधादि मेरे ही स्वाभाविक कार्य हैं । ऐसा भेदज्ञान होनेसे ही निज आत्मा अपने शुद्ध स्वभावमें प्रतीतिगोचर होते हुए अनुभवगोचर होता है। प्रयोजन यह है कि जिनवाणी द्वारा पदार्थोके यथार्थ ज्ञानको प्राप्त करके द्रव्योंके गुण पर्यायोंको पहचानना चाहिये तथा गुण गुणी अलप रहते हैं यह मिथ्या बुद्धि छोड़ देनी चाहिये, तब ही आत्माका हित होगा व निशंक ज्ञान होकर समताभावका उदय होगा। ___उत्थानिका--आगे यह प्रगट करते हैं कि इस दुर्लभ जैनके उपदेशको पाकरके भी जो कोई मोह रागद्वेषों को नाश करते हैं वे ही सर्व दुःखोंका क्षय करके निज स्वभाव प्राप्त करते हैं।