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श्रीमवचनसार भाषाटीको। [२६७ नवाले जीवके भनुभवमें उतना निर्मल आनन्द नहीं प्रगट होता जितना श्री अरहंत व सिद्ध परमात्माको होता है क्योंकि पाविया काँका प्रभाव नहीं भया है। तो भी जो कुछ अनुभवमें होता है वह भावश्चत ज्ञानके द्वारा आत्मीक सुखका ही स्वाद है। इसी कारण सम्यग्दृष्टी जीवोंको पक्का निश्चय होजाता है कि जैसा आत्मीक सुख हमारे अनुभवमें आ रहा है इसी जातिका अनन्त अविनाशी और शुद्ध सुख घातिया कर्मोंसे शून्य अरहत तथा सिद्धोंके होता है। यह आत्मीक सुख सब सुखोंसे श्रेष्ठ इसी कारणसे है कि यह निज स्वभावसे पैदा हुआ है। इसमें किसी तरहकी पराधीनता नहीं है। इस सुखके भोगसे आत्मा पुष्ट होता है तथा अपूर्व शांतिका लाभ होता है और पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा होती है नवीन कर्मों का संवर होता है। इस सुखका अनुभव मोक्ष या स्वाधीनताका बीन है। इसी कारण यह सुख सबसे बढ़कर है। इस सुखके मुकाबले में विषयभोग तथा कषायोंके द्वारा उत्पन्न हुभा नो इन्द्रियसुख तथा मानसिक सुख सो बहुत ही निर्बल, पराधीन तथा अशांतिका कारक, तृष्णावर्द्धक और कर्मबंधका चीन है । इन्द्रियजनित सुख इंद्रियोंकी पुष्टता तथा इष्ट बाहरी पदार्थोके संयोगके आधीन है, मात्मनलको घटाता है, आकुलता व तृष्णाको बढ़ा देता है तथा तीन रागभाव होनेसे पापकर्मका बन्ध करता है । इंद्रियभोगोंके सिवाय जो मुख मनकी कषायननित तृप्तिसे होता है वह भी इसी तरहका है जैसे किसी पर क्रोधके कारण द्वेष था यह सुना कि उसका अनिष्ट हो गया या स्वयं उसका अनिष्ट किया या