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________________ ५२ ] श्री वचनसार भाषाटीका । विना किसी विधा अनुभवमें आता है। अरहंत भगवानके ऐसा अनुपम सुख उत्पन्न होनाता है सो सिद्धोंके सदाकाळ बना रहता है । यद्यपि इस सुखकी पूर्ण प्रगयता महतोंके होती है तथापि चतुर्थ गुणस्थान से इस सुखके अनुभवका प्रारंभ होजाता है। जिस समय मिथ्यात्त्व और अनंतासुन्धीका पूर्ण उपशम होकर उपशम सम्यग्दर्शन जगता है उसी समर्थ स्वात्मानुभव होता है तथा इस मात्मीक आनन्दका स्वाद आता है। इस सुखके स्वाद लेनेसे ही सम्यक्त भाय हैं ऐसा अनुमान किया जाता है | यहांसे लेकर श्रावक या मुनि अवस्था में महात्मामें अपने स्वरूपकी सन्मुग्नता होती है तब तव स्वास्मानुभय होकर इस आत्मीक सुखका लाभ होता है । कि ज्ञान और अनंतवीर्य के होनेपर इस आत्मीक सुखका निर्मक और निरन्तर प्रकाश केवलज्ञानी अर्हतके डोभाता है और "फिर वह प्रकाश कभी भी बुझता व मन्द नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि जिस साम्यभावसे आत्मीक आनन्दकी प्राप्ति होती है उस साम्यभाव के लिये पुरुषार्थ करके उद्यम करना चाहिये । वही अब भी सुख प्रदान करता है और भावीकालमें श्री सुखेदाई होया । निर्वाणमें भी इसी उत्तम आत्मीक आनंदा प्रकाश सदा रहता है इसी लिये मोक्ष या निर्वाण ग्रहण करने योग्य है । उसका उपाय शुद्धोपयोग है। सोही भावने योग्य है । उत्थानका- आगे जिस शुद्धोपयोग के द्वारा पहले कहा आनन्द प्रगट होता है उस शुद्धोपयोग में परिणमन करनेवाले पुरुषका लक्षण प्रगट करते हैं:
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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