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२५६]. श्रीभवचनसार भाषाटीका।
लिमिरहरा यदि दृष्टिननस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । । तथा सौख्य स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुन्ति ।।६९ ॥
सामान्यार्थ-जिस पुरुषकी दृष्टि यदि अंधकारको दूर करनेवाली है अर्थात् अंधेरैमें देख सक्ती है उसको दीपकसे कुछ करना नहीं है वैसे ही यदि आत्मा स्वयं सुखरूप है तो वहां इन्द्रियों के विषय क्या कर सकते हैं।
__ अन्वय सहित विशेषार्थ:-(जह ) जो (जणस्स दिट्टी) किसी मनुष्यकी दृष्टि रात्रिको ( तिमिरहरा ) अंधकारको हरनेवाली है अर्थात अंधेरैमें देख सक्ती है तो ( दीवेण कादव्वं णत्थि ) दीपसे कर्तव्य कुछ नहीं है । अर्थात् दीपकोंका उसके लिये कोई प्रयोजन नहीं है । ( तह ) तैसे (आदा सयम् सौक्ख) जो निश्चय करके पंचेद्रियों के विषयोंसे रहित, अमूर्तीक, अपने सर्व प्रदेशोंमें आल्हादरूप सहन थानन्द एक लक्षणमई सुख स्वभाववाला आत्मा स्वयं है ( तत्थ विसया कि कुचंति ) तो वहां मुक्ति अवस्थामें हो या संसार अवस्थामें हो इन्द्रियोंके विषयरूप पदार्थ क्या कर सक्ते हैं ? कुछ भी नहीं कर सके। यह भाव है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने साफ २ प्रगट कर दिया है कि सुख आत्माका स्वभाव है । इसलिये जैसे बाहरी शरीर सुखरूप नहीं है वैसे इन्द्रियों के विषयभोगके पदार्थ भी सुखरूप नहीं हैं। वास्तवमें इस संसारी प्राणीने मोहके कारण ऐसा मान रक्खा है कि धन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि पदार्थ सुखदाई हैं। वास्तवमें बाहरी पदार्थ जैसेके तैसे अपने स्वभावमें हैं। हमारी कल्पनासे अर्थात् कषायके उदयननित विकारसे कभी कोई पदार्थ