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श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२५५ या द्वेष प्रगट रूपसे एक समयमें एक झलकते हैं परन्तु एक दुसरेके कारण होकर शीघ्र बदला बदली कर लेते हैं। किसी स्त्रीकी तृष्णासे राग हुआ, उसके वियोग होनेपर दूसरे समयमें द्वेष हो जाता है फिर यदि उसका संयोग हुआ तब फिर राग होजाता है। परिणामों में संल्केशता द्वेपसे होती है तथा परिणामों में उन्मत्तता आशक्ति रागसे होती है । बाहरी पदार्थ मात्र निमित्तकारण हैं। कभी इप्ट बाहरी कारण होते हुए भी परिणामने अन्य किसी विचारके कारण द्वेष रहता है जिससे इष्ट शरीरादि सुखभाव नहीं दे सक्ते हैं। प्रयोजन यह है, कि यही अशुद्ध भारमा कषाय द्वारा सुखी तथा दुःखी होजाता है शरीर सुख या दुःखरूप नहीं होता है, ऐसा नागकर सांसारिक सुखफी पापजनित विकार मानकर तथा निनाधीन निर्विकार मात्मीक सुखका उपाय ठीक २ करना फग समझकर उस सुखके लिये निज शुखात्मामें उपयोग रखकर साम्यभावका मनन करना चाहिये।
इस तरह मुक्त जीवों के देह न होते हुए भी सुख रहता है इस बातको समझानेके लिये संसारी प्राणियोंको भी देह सुखका नहीं है ऐसा पहने हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ६८ ॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यह मात्मा स्वयं सुम्ब स्वभावको रखनेवाला है इसलिये जैसे निश्चय करके देह सुखका कारण नहीं है वैसे इंद्रियों के पदार्थ भी सुखके कारण नहीं हैं। तिमिरहरा जइ दिशी, जणस्त दीवेण णस्थि कादक तध सोरखं स्यमादा. विसया तित्य कुछ ६९