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श्रीमवधनसार भापाटीका। [२६७ सुखदाई व कभी कोई पदार्थ दुःखदाई भासते हैं। जब स्त्री माज्ञामें चलती है तब सुखदाई और जब माज्ञासे विरुद्ध चलती है तब दुःखदाई भासती है । रागीको धन सुखरूप तथा वैरागीको दुःखरूप पगट होता है । निश्चयसे कोई पदार्थ सुख या दुःखरूप नहीं है न कोई दूसरेको सुखी या दुःखी करसक्ता है। यह प्राणी अपनी कल्पनासे कभी किसीके द्वारा सुखरूप तथा कभी दुःखरूप होनाता है। जैसा पहले गाथाओंमें कहा है कि सुख मात्माका निज स्वभाव है वैसे यहां कहा है कि मुखरूप स्वयं आत्मा ही है। जैसे ज्ञान स्वभाव आत्माका है वैसे सुख भी स्वभाव आत्माका है, संसार भवस्था में उसी सुख गुणका विभावरूप परिणमन होता है । चारित्रमोहके उदय वश
आत्मीक मुखका अनुभव नहीं होता है। परन्तु जब बलपूर्वक . मोहके उदयको दूरकर कोई यात्मज्ञानी महात्मा अपने आत्मामें निज उपयोगकी चिता करता है तो उसको उस सच्चे म्वाधीन सुखका स्वाद माता है । केवलज्ञानीके मोहका अभाव है इसलिये वे निरंतर सच्चे मानन्दका विलास करते हैं । प्रयोजन फहनेका यह है कि जन सुख निन भात्मा है तब निज मात्मामा ही स्वाद स्वाधीनतासे लेना चाहिये । मुखके लिये न शरीरकी न धनादिकी न भोमन पान दस्त्रादिकी आवश्पका है। आत्मीक सुख तो तब ही अनुभवमें आता है जब सर्व परपदाोंसे मोह हर" ठहरा जाता है। यहां आचार्यने दांत दिया है कि जो कोई चोर, सिंह, विलाव, सर्प आदि र स्वयं देख सक्ते हैं उनके लिये दीपककी जरूरत नहीं है । देख