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श्रीभवचनसार भाषाटीका। [३०६ सामायिक भावको नहीं पाता हुआ न शुद्ध भात्माका अनुभव कर सक्का है और न कभी अपनेको शुद्ध कर परमात्मा हो सका है। कारण यही है कि उसके भीतर मोक्ष साधक रत्नत्रयका अभाव है। जो भव्य जीप सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे केवल शुद्ध आल्माका व उससे उत्पन्न वीतराग परिणति तथा अतींद्रिय सुखका प्रेमी हो जाता है और संसारके जन्ममरणमय प्रपंचजालसे व विषयभो. गोंसे मोह व रागद्वेष छोड़ देता है तथा इसी लिये इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण आदिके पदोंकी अभिलाषा नहीं रखता है वही जीव अपने शुद्ध आत्मीक सभावके सिवाय अन्य भावोंको व पदार्थों को नहीं चाहता हुआ तथा केपल मात्मीक अनुभवका स्वादी होता हुआ गृहवासको आकुलताका कारण मानकर त्याग देता है तथा मुनिमवस्थाको निश्चय शुद्धात्मामें रमणरूप चारित्रका निमित्त कारण जानकर धारण कर लेता है और व्यवहार चारित्रमें मोही न होता हुआ उसे गालते हुए निर्विकल्प समाधिरूप परम सामायिक भावमें तिष्ठता है । तथा इसी शुद्धभावना निरन्तर अभ्याप रखता है वही गात्मा पूर्ववद्ध कोशी निर्जरा करता हुआ एक दिन मिन केवली भगवान और फिर सिद्ध परमात्मा हो जाता है । परन्तु यदि कोई मुनि होकर भी वीतराग भावको छोड़कर मोही या रागी देषी हो जाता है तो वह आत्मा शुद्धोपयोगको न पाकर केवल शुभोपयोगर्म वर्तन करता हुआ कभी भी शुद्ध
आत्माको नहीं पाता है। :ल्टा वह नीव शुभोपयोगके फलसे पुण्य बांध विषयोंकी सामग्रीमें उलझकर संसारके चक्रमें भ्रमण किया करता है । श्री अमृनचंद्र आचार्यले समयसार कलशोंमें कहा मी है