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श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२६७ ताको दूर करने के लिये "चत्ता पावारम्मंग इत्यादि सात गाथाओं तक दूसरी ज्ञानकंठिका है। फिर द्रव्यगुण पर्यायके ज्ञानके सम्बन्धमैं मूढताको हटाने के लिये "दब्दादीएसु" इत्यादि छ: गाथाओं तक तीसरी ज्ञानकंठिका है । फिर स्व और पर तत्वके ज्ञानके सम्बन्धमें मृढ़ताको हटाने के लिये 'णाणपर्ग" इत्यादि दो गाथाओंसे चौथी ज्ञानकंठिका है। इस तरह इस चार अधिकारकी समुदायपातनिका है।
भव यहां पहली ज्ञानकंठिकामें स्वतंत्र व्याख्यानके द्वारा चार गाथाएं हैं। फिर पुण्य जीवके भीतर विषयभोगकी तृष्णाको पैदा कर देता है. ऐसा कहते हुए गाथाएं चार हैं। फिर संकोच करते हुए गाथा दो हैं इस तरह तीन स्थलतक ऋमसे, व्याख्यान करते हैं । यद्यपि पहले छः गाथाओंके द्वारा इंद्रियोंके सुखका स्वरूपा कहा है तथापि फिर भी उसीको विस्तारके माथ कहते हुए उस इंद्रिय सुखके सापक शुभोपयोगको कहते हैं। अथवा दूसरी पातनिका है कि पीठिकामें मिस शुभोपयोगका स्वरूप सचित किया है उसीका. यहाँ इंद्रियसुखके विशेष कथनमें इंद्रिय सुखका साधकरूप विशेष मारल्यान करते हैं:देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणमिम वा सुसालेतु । उववामादिसु रत्तो, सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥७॥
देवतायतिगुरुपूजासु चव दाने वा सुशीलेषु । उपवासादिपुरतः शुभोपयोगात्मक आत्मा ।। ७३ ॥ सामान्यार्थ-जो श्री जिनेन्द्रदेव, साधु और गुरुक्की