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श्रीमवचनसार भापाटीका ।
निर्विकार स्वसंवेदन रूप जो परम चतुराई उसमें थिरीभूत होकर st अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हविषादको त्याग देने से समता भावके धारी हैं ऐसे गुणों को रखनेवाला ( समणः ) परममुनि ( सुद्धोवओोगः ) शुद्धोपयोग स्वरूप ( भणिभो ) कहा गया है (त्ति ) ऐसा अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने निर्वाणका कारण जो शुद्धोपयोग है उसके धारी परम साधुका स्वरूप बताया है । यद्यपि स्वस्वरूप में थिरताको प्राप्त करना सम्यक् चारित्र है । और यही शुद्धोपयोग है । तथापि व्यवहार चारित्रके निमित्तकी आवश्यक्ता है । क्योंकि हरएक कार्य्यं उपादान और निमित्त कारणों से होता है । यदि दोनोंमेंसे एक कारण भी न हो तो का होना अशक्य है । आत्माकी उन्नति आत्मा ही के द्वारा "होती है । आत्मा स्वयं आत्माका अनुभव करता हुआ परमात्मा होजाता है । जैसे वृक्ष माप ही स्वयं रगड़कर अग्निरूप होजाता है।
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जैसा समाधिशतक में श्री पूज्यपाद स्वामीने कहा है:उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा । मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽअग्निर्यथा तरुः ॥
भावार्थ यह है कि आत्मा अपनी ही उपासना करके परमात्मा होजाता है। जैसे वृक्ष आप ही अपनेको मथनकरके अग्निरूप होजाता है । इस दृष्टांत में भी वृक्षके परस्पर गढ़ने में पवनका संचार निमित्तकारण है । यदि वृक्षकी शाखाएं पवन विना थिर रहें तो उनसे अग्निरूप परिणाम नहीं पदा होसका है ।