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श्रीप्रवचनसार भाषाका। [१६७. न ज्ञान बन्धका कारण है न कमौका उदय बंधका कारण है किन्तु रागादि भाव ही बंधके कारण हैं।
. भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने आत्माकी अशुद्धि होने अर्थात् कार्माण वर्गणारूप पुद्गलोंसे बंध होनेके कारणोंको प्रगट किया है। प्रथम ही यह बतलाया है कि पदार्थीका ज्ञान बंधका कारण नहीं है । ज्ञानको काम दीपकके प्रकाशकी तरह मात्र , जानना है। उसका काम मोहादि करना नहीं है इससे ज्ञान कम हो या अधिक, ज्ञान बंधका मूल कारण नहीं है। और न को उदय वंधका कारण है । कर्मोके उदयसे सामग्री अच्छी या बुरी जो प्राप्त होती है उप्तमें यदि कोई रागद्वेष मोह नहीं करता है तो वह सामग्री आत्माके बंध नहीं कर सक्ती । और यदि फर्मोंके असरसे शरीर व वंचनकी कोई क्रिया होजाय और मात्माका उपयोग उस क्रिया रागद्वेष न करे तो उस क्रियासे मी नया बंध नहीं होगा । वंधका कारण राग, द्वेष, मोह है। जैसे शरीर द्वारा किसी अखाड़ेमें व्यायाम करते हुए यदि शरीर सुखा है, तैलादिसे चिकना व भीगा नहीं है तो अखाड़ेकी मिट्टी शरीरमें प्रवेश नहीं करेगी अर्थात् शरीरमें न बंधेगी किन्तु यदि तैलादिकी चिकनई होगी तो अवश्य वहांकी मिट्टी शरीरमें चिपटनायगी। इसीतरह मन वचन कायकी क्रिया करते व नानपनेकां काम करते हुए व बाहरी सामग्रीके होते हुए यदि परिणाममें राग द्वेष मोह नहीं है तो आत्माके नए कमौका बंध न पड़ेगा और यदि राग द्वेष मोह होगा नौ अवश्य बंध होगा। ऐसा ही श्री अमृतचंद आचार्यने समयसारं कलशमें कहा है-..