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१६८] .श्रीभवचनसार भापाटीका ।
नं कर्मबहुलं जगन्नचलनात्मकं कर्मचाननेककरणानि चान चिदचिद्या कृत् ॥ . यदक्यमुपयोगः समुपयाति रागादिभिः । स एव फिल केवलं भवति बन्धहेतुणाम् ॥२-८11
भाव यह है कि कार्माणवर्गणाओंसे भरा हुआ जगत बंघका कारण नहीं है। न हलनचलन रूप मन, वचन, कायके योग बंधके कारण हैं। न अनेक शरीर इंद्रिय व वाहरो पदार्थ बंधक कारण हैं । न चेतन, अचेतना बव वंधना कारण है। जो उपयोगकी भूमिना रागादिसे एकताको प्राप्त हो जाती है वही राग, द्वेष, मोह, भावकी कालिमा नीवोंके लिये नात्र बंधको कारण है। ___ श्री पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैं:' मुच्यते जीवः सयमो निर्ममः क्रमात् । । तस्मात्सप्रयत्नेन निर्ममा विचितरेत ॥ २६ ॥
भाव यह है कि जो जीव ममता सहित है वह बंधता है। नो जीव ममता रहित है वह बंधसे छूटता है । इसलिये सर्व प्रयत्न करके निर्भमत्य भावका विचार करो। . . .
श्रीगुणभद्राचार्य श्री आत्मानुशासनमें व्हते हैं रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोधः प्रकृत्यत्तिभ्याम् । तत्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ।। १८० ।।
भाव यह है कि इसमीक्के, रागद्वेषसे करी हुई प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति तो बंध होता है। परन्तु तत्वज्ञान पूर्वक की हुई प्रवृत्ति और निवृत्तिरे कमौसे मुक्ति होती है।
रागद्वेष अथवा कपाय चार प्रकार होते हैं.'