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________________ MARA Mom ३२६.] श्रीमवचनसार भाषाटीका । • रखनेका उद्यम करता है। ऐसे जीवको अविरत सम्यग्दृष्टी कहते हैं। तथा इस रागद्वेषको अप्रत्यख्यानावरणीय रागद्वेष रहते हैं। इस भेदके कारण यह जीव श्रावकके व्रतोंके नियमोंको नहीं धारण कर सकता है। तीसरा भेद रागद्वेषका वह है कि जिसके कारणं संसारसे छूटनेशा भाव कार्य में परिणति होने लगता है और यह सम्यदृष्टी नीव बड़े उत्साहसे श्रावकके ब्रोंको धारता हुमा त्याग करता चला जाता है। विषयोंके भोगमें अति. 'उदासीन होता हुआ क्रमसे घटाता हुआ व परिग्रहको भी कम करता हुआ पहली दर्शन प्रविमासे बढ़ता हुआ ग्यारहवीं उदिष्ट त्याग प्रतिमा तक बढ़ जाता है जहाँपर परिग्रहमें मात्र एक लंगोटी होती है और आचरण मुनि मार्गकी तरफ झुकता हुमा है। इस भेदकों प्रत्याख्यानावरणीय रागद्वेष कहते हैं। इसकी वासना पंद्रह दिनसे अधिक नहीं रहती है इसके बलसे मुनिव्रत नहीं होते हैं | जब यह नहीं रहता है तब मुनिव्रत होता है। चौथा भेद रागद्वेषका वह है जो संयमको घात नहीं करता है किन्तु वीतराग चारित्रके होने में मलीनता करता है। जब यह हट जाता है तब साधु वीतरागी तथा आत्मा मानन्दमें लीन हो जाता है। इस भेदको संज्वलन रागद्वेष कहते हैं। इसकी वासना अंतर्गहूसे. मात्र है। नहीं पहला मेद है यहां अन्य तीनों भी साथ साथ हैं। पहला भेद मिटनेपर तीन, दो मिटनेपर शेष दो, तीनों भेद मिटनेपर. चौथा ही भेद रहता है। चारों ही प्रकारके रागद्वेषोंक दूर हुए विना यह आत्मा पूर्ण अक्षुमित व निराकुल नहीं होता है । तथापि जो र भेद मिटता जाता है उतनी उतनी निराकुलता होती जाती
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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