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२४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। • सामान्यार्थ-निश्चय करके अपने मात्मामें स्थिति रूप
वीतराग चारित्र ही धर्म है और नो धर्म है सो ही साम्यभाव कहा गया है, तथा मोहकी भाकुन्तासे रहित पो पात्माका परिणाम है वही साम्यंभाव है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(चारित) चारित्र (खलु) प्रगटपने ( धम्मो ) धर्म है (जो धम्मो ) यह धर्म है (सो समोत्ति ) सो ही शम या साम्यभाव है ऐसा ( णिहिटो) कहा गया है । ( अपणो ) आत्माका ( मोहक्खोइविहीणः.) मोहके क्षोभसे रहित ( परिणामः ) भाव है (हि ) दही निश्चय करके (समो ) समता भाव है । प्रयोजन यह है कि शुद्ध चैतन्यके स्वरूपमें आचरण करना चारित्र है । यही चारित्र मिथ्यात्व रागद्वेषादि द्वारा संस्मरणरूप जो भाव संसार उसमें पड़ते हुए प्राणीका उद्धार करके विकार रहित शुद्ध चैतन्य भावमें धारण करनेवाला है इससे यह चारित्र ही धर्म है यही धर्म अपने आत्माकी भावनासे उत्पन्न जो सुखरूपी अमृत उस रूप शीतल गळके द्वारा काम क्रोध आदि अग्गिसे उत्पन्न संसारीक दुःखोंको दाहको उपशम करनेवाला है इससे यही शम, शांतभाव या साम्यभाव है। मोह और क्षोभके ध्वंस करनेके कारणसे वही शांतभाव मोह क्षोभ रहित शुन्द मात्माका परिणाम कहा जाता है। शुद्ध आत्माके शृद्धान रूप सम्यग्दर्शनको नाश करनेवाला जो दर्शन मोह कर्म उसे मोह ' कहते हैं। तथा निर्विकार निश्चल चित्तका बर्तनरूप चारित्रको जो नाश करनेवाला हो वह चारित्र मोहनीय फर्म या क्षोभ कहलाता है