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________________ AM श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [११५ प्रधान है क्योंकि इमहीके द्वारा अन्य गुणोंका व स्वभाळफा बोष होता है इसलिये ज्ञानरूप मात्माको यत्रतत्र कहा है, परन्तु ऐसा कहनेका मतलब यह न निकालना कि मत्मा मात्र ज्ञानरूप हो है किंतु यही समझना कि ज्ञानरूप कहने में ज्ञान की मुख्यता ली गई है। ऐसा वस्तुका स्वरूप है-जो इसको मनझता है वही परहंत और सिद्ध भगवानको तथा अपने तथा पर भात्माको पहचान सका है। यह जानते हुए कि केवलज्ञानकी व्यक्तता' ५मानगई अनंत सुखी यह आत्मा हो जाता है हमको जिम तर बनकलज्ञानके कारणभूत शुद्धोपयोग या साम्यमाया ई मनन ना चाहिये। इस तरह आत्मा और ज्ञानकी एकता तथा ज्ञानके व्यवहारसे सर्वव्यापझपना है इत्यादि कथन करते हुए दूसरे स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञान ज्ञेयोंके समीप नहीं नाता है ऐसा निश्चय हैपाणी णाणसहावो, अत्था णेयापगा हि गाणिस्ता रूवाणिव चक्खूणं, जेवण्णोण्णेसु वहति ॥२८॥ शानी शानस्वभावोऽर्धा शेयानका हि शानिनः । रूपाणीव चक्षुपोः नेतान्योन्येषु वर्तन्ते ॥ २९ ॥ सामान्यार्थ-निश्चय करके ज्ञानी आत्मा ज्ञान स्वभाववाला है तथा ज्ञानीके ज्ञेयस्वरूप पदार्थ चक्षुओंके भीतर रूपी पदार्थोकी तरह परस्पर एक दूसरेमें प्रवेश नहीं करते हैं।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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