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श्रीपश्चनसार भाषादीका। [१७ . समाधि भावमें परिणमन करते हुए परम योगियोंके वैराग्य चारित्रादि गुणों की सराहना करके उन गुणों के प्रेममें अपने मनको जोड़ना सो योग भक्ति है । नमस्कार करते हुए भावों में विशुजताकी आवश्यक्ता है सो गय नमस्कार करने योग्य पूज्य पदार्थके गुणों में परिणाम लवलीन होते हैं तब ही भाव विशुद्ध होते हैं। इन विशुद्धभावोंके कारण पाएकाँका रस सूख जाता है व घट जाता है तथा पुण्य कर्मो रस रह जाता है जिससे प्रारंभित कार्य में विघ्न बाधाएं होनी वंह होजाती हैं। . ___उत्थानिका-आगेकी गाथामें ऊपरके कथनको फिर पुष्ट करते हैंकिचा अरहनाणं, लिखाणं तह णो गणराण । ভল্লালাগা, ভাল্লু ব ভ ॥ ৪
सवाई-गः सिद्धेम्पलाथा णमो गणपरेभ्यः ।
अध्यापवर्गभ्यः साधु-मधेत सर्वेभ्यः ॥ ४ ॥
सामान्या-इस प्रकार सर्व ही अहतोको, सिद्धोंको गणधर आचार्यायो, उपाध्याय समूह तथा साधुओंको नमस्कार करके (क्या करूंगा सो आगे रहते हैं।
__ अन्वय सहित विशेषार्थ-(सन्वेसिं ) सर्व ही ( अरहताणं ) अरतों को ( सिद्धाणं ) आठ कर्म रहित सिद्धोंको (गणहराणं) चार ज्ञानके धारी गणधर आचार्योको (तह ) तथा (अज्झावयदग्गाणं ) उपाध्याय समूहको और ( चेष ) तैसे ही (सारण ) मधुओंको ( णमो किचा ) भाव और द्रव्य नमस्कार दूरके भागे मांगा जो करना है।