________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका । [३९ . m immmmmmmmmmminvernurvinninn पाई जावें । यही भाव इस गाथामें है कि पदार्थ कमी परिणामके विना नहीं मिलेगा और पदार्थक विना परिणाम भी कहीं अलंग नहीं मिलसक्ता है इन दोनोंका अविनाभाव सम्बंध है । तथा उसी पदार्थकी सत्ता सिद्ध मानी जायगी जो द्रव्यगुण पर्यायोंमें रहनेवाला है। यहां द्रव्य शब्दसे सामान्य गुण समुदायात्मा लेना चाहिये उमोके विशेष गुण और पर्यायें लेनी चाहिये। इस तरह सामान्य और विशेष रूप पदार्थ ही जगतमें सत् है । तात्पर्य यह है कि जब भात्माका म्वभाव परिणमनशील है तब ही यह आत्मा मिम भावरूप परिणमन करेगा उस रूप हो जायगा अतएव शुम अशुभ भावों को त्यागकर शुद्ध भावोंमें परिणमना कार्यकारी हैं। इस तरह शुभ भशुम शुद्ध परिणामोंकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई।
उस्थानिका-आगे वीतराग चारित्र रूप शुद्धोपयोग तथा सराग चारित्र रूप शुभोपयोग परिणामोंका संक्षेपसे फल दिखाते हैं:धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा जदि सुखसंपयोगजुदो। पाचदिणिव्याणसुह, सहोरजुत्तोष सग्गसुहं ॥११॥
धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः। .
प्राप्नोति निणिमुवं शुभोपयुक्तो वा स्वगसुखम् ॥ ११ ॥ .. सामान्यार्थ-धर्मभावसे परिणमन करता हुआ आत्मा यदि शुद्ध उपयोग सहित होता है तो निर्वाणके सुखको पाला है। यदि शुभ उपयोग सहित होता है सव स्वर्गक सुखको पाता है। " ': अन्वय सहित विशेषार्थ-(धम्मेण ) धर्म भावसे