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श्रीमवचनसार भापाटीका |
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सदा शुद्ध बना रहता है, फिर कभी अशुद्ध नहीं होता
है। इसी लिये यह कहा कि जब यह आत्मा शुद्धो
.पयोग के प्रसाद से शुद्ध होता है. अथवा जब उसके शुद्धताका उत्पाद होजाता है तब वह विनाश रहित उत्पाद होता है और जो अशुद्धताका नाश होगया है सो फिर उत्पाद रहित नाश हुआ है । इस तरह सिद्ध भगवान नित्य अविनाशी हैं तथापि उनमें उत्पाद व्यय धौव्य रूप लक्षण घटता है। इसको वृत्तिकारने इस तरह बताया है कि जिस समय सिद्ध पर्यायका उत्पाद हुआ टंसी समय संसार पर्यायका नाश हुआ और जीव द्रव्य सदा ही श्रौव्य रूप है | इस तरह सिद्ध पर्यायके जन्म समय में उत्पाद व्यय धन्य तीनों सिद्ध होते हैं । इसके सिवाय सिद्ध व्यवस्थाके रहते
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हुए भी उत्पाद व्यय धव्य पना सिद्धों के बाधा रहित है । क्योंकि अल्पज्ञानियोंको विभाव पर्यायका ही अनुभव है स्वभाव पर्यायका अनुभव नहीं है इसलिये शुद्ध जीवादि द्रव्योंमें जो स्वभाव पर्यायें होती हैं उनका वोष कठिन मालूम होता है । आगममें अगुरु घुगुणं विकारको अर्थात् षट् गुणी हानि वृद्धिरूप परिणम नको स्वभाव पर्याय वतलाया है | इसका भाव यह समझमें आता है कि अगुरुलघु गुणमें जो द्रव्यमें सर्वाग व्यापक है समुद्रजलकी कल्लोलवत्तरंगे उठती हैं जिससे कहीं वृद्धि व कहीं हानि, होती है परन्तु, अगुरुऋघु बना रहता है। जैसे समुद्र में तरगे उठने पर भी समुद्रका जल ज्योंका त्यों बना रहता है केवल कहीं उठा कहीं बैठा हो जाता है इसी तरह अगुरुलघु गुणके अंशोंमें वृद्धि हानि होती है क्योंकि हरएक गुण द्रव्यमें सर्वांग व्यापक है इस