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• श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। ५३ "लिये भगुरुलघु गुणफे परिणमनसे सर्वे, ही गुणोंमें परिणमन हो ,
जाता है । इस तरह शुद्ध द्रव्यमें स्वभाव पर्यायें . समझमें भाती हैं। इस स्वभाव पर्यायका विशेष कथन झहीं देखने में नहीं आया। आलाप पद्धतिमें अगुरुलघु गुणके विकारको स्वभाव पर्याय म्हा है और समुद्र में जल कल्लोतका दृष्टांत दिया है इसीको हमने . ऊपर स्पष्ट किया है । यदि इसमें कुछ त्रुटि हो व विशेष हो तो विद्वज़न प्रगट करेंगे व निर्णय करके शुद्ध करेंगे।
द्रव्यमें पर्यायोंका होना जब द्रव्यका स्वभाव है तब शुद्ध या अशुद्ध दोनों ही अवस्थाओंमें पर्यायें रहनी ही चाहिये। यदि शुद्ध अवस्थामें परिणमन न माने तब अशुद्ध अवस्थामें भी नहीं मान सके हैं । पर जब कि अशुद्ध अवस्था में परिणमन होता है तब शुद्ध अवस्थामै भी होना चाहिये, इसी अनुमानसे सिद्धोंमें भी सदा पर्यायोंका उत्पाद व्यय मानना चाहिये । परिणमन स्वभाव होने ही से सिद्धोंका ज्ञान समय समय, परम शुद्ध स्वात्मानन्दका भोग करता है । शुद्ध सिद्ध भगवानमें कोई कर्म बंध नहीं रहा है इसीसे वहां विभाव परिणाम नहीं होते, केवल शुद्ध परिणाम ही होते हैं। परिणाम समय २ अन्य अन्य हैं इसीसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना तथा गुण पर्यायवानपना सिद्धोंके सिद्ध है । इस कथनसे आचार्यने यह भी बनाया है कि मुक्त अवस्थामें मात्माकी सत्ता से संसार अवस्थामें रहती है वैसे बनी रहती है। सिद्ध जीव सदा ही अपने स्वभावमें व सत्त.में रहते हैं न किसीमें मिलते हैं न सत्ताको खो बैठते हैं। . उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जैसे सुवर्ण आदि मूर्तीक