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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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कम्मममुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाण सुहसी ं । कहं तं हादि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥ १५२ ॥
भाव यह है कि यद्यपि व्यवहारनय से अशुभोपयोग रूप कर्मको कुशील अर्थात् बुरा और शुभोपयोगरूप कर्मको सुशील अथवा अच्छा कहते हैं, परन्तु निश्चयसे देखो तो जिसको सुर्शीक कहते हैं वह कुशील हैं क्योंकि संसार में ही रखनेवाला है । पुण्यका उदय जबतक रहता है तबतक कर्मकी बेड़ी कटकर आत्मा स्वाधीन व निराकुल सुखी नहीं होता है। ऐसा जान' आत्माधीन चे सुख के लिये एक शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी योग्य है । शेष सर्वं कषायका पसारा है जो स्वाधीनताका घातक, माकुलतारूप व बन्धका कारक है तथा संसाररूप है - एक शुद्धोपयोग ही मोक्ष रूप तथा मोक्षका कारण है इसलिये यही ग्रहण करने योग्य है ॥ ७६ ॥
इस तरह स्वतंत्र चार गाथाओंसे प्रथम स्थल पूर्ण हुआ । उत्थानिका- आगे व्यवहारनयसे ये पुण्यकर्म देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि पद देते हैं इसलिये उनकी प्रशंसा करते हैं सो इसलिये बताते हैं कि आगे इन्हीं उत्तम फलोंके माघारसे तृष्णाकी उत्पत्तिरूप दुःख दिखाया जायगा ।
कुलि साउहचक्कधरा, सुहोवभोगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीनं विद्धिं, करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥ ७७ ॥ कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकः भोगेः ।
देहादीनां वृद्धि कुर्वेति सुखिता इवाभिरताः ॥ ७७ ॥