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'श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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श्री अमृतचंद्राचार्य ने कहा हैः
हेतु स्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदा अहि कर्मभेदः । तद्वन्त्रमार्गाश्रितमकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बंध हेतुः ॥३॥
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भावार्थ- पुण्य पापकर्म दोनोंका हेतु आत्माका अशुद्ध भाव है, दोनोंका स्वभाव पुद्गलमईं है । दोनोंका अनुभव राग द्वेषरूप हैं दोनोंका आश्रय एक कलुषित आत्मा "है इससे इनमें भेद नहीं है- दोनों ही बन्ध मार्गका आश्रय किये हुए हैं तथा समस्त यह कर्मबन्धके कारण हैं, इसलिये ये पुण्य पाप समान हैं वैसे ही इनके उदयसे जो रागद्वेषं सहित साता व असाताका अनुभव होता है वह भी कषायरूप अशुद्ध अनुभव है, आत्मीक अनुभवसे विलक्षण हैं इसलिये समान है । आचार्यका अभिप्राय यह है कि शुभोपयोगसे पुण्यबांध जो देव या मनुष्योंको सामग्री प्राप्त होती है उसीके कारण यह प्राणी. - रागी हो उनके रमने को इसलिये जाता है कि विषयोंकी चाह शांत करूंगा परन्तु उनके भोग करनेसे तृष्णाको बढ़ा लेता है । चाहकी दाह बढ़ जाती है - यह दाह ही दुःख है । इसलिये यह इंद्रिय सुख दुःखका कारण होनेसे दुःखरूप है । जब ऐसा है तब शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों ही त्यागने योग्य हैं । क्योंकि जैसे पापोदयसे दुःखमें आकुलता होती है वैसे पुण्योदयसे सुखके निमित्तसे आकुलता होती है । इसलिये दोनों ही समान हैं- मात्मा शुद्ध भावसे भिन्न हैं ।
- श्री समयसारनी में श्री कुंदकुंद भगवानने कहा है