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२४४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। लिये नहीं लिया कि उनको तो सदा ही इष्ट पदार्थोका वियोग रहता है यद्यपि तिर्यच कुछ इच्छित विषय भी पाते हैं, परन्तु वे बहुत कम ऐसे नियंच हैं । अधिक तिर्यंच जीव तो क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, भय, मारण, पीडन, वैर, द्वेष 'तथा तीव्र विषय लोलुपता आदि दुःखोंसे संतापित रहते हैं। नारकीजीवोंको इष्ट पदार्थ मिलते ही नहीं-वे विचारे घोर भूख प्यास शीत उष्णकी वेदनासे दुःखित रहते हैं । मनुप्योंकी अपेक्षा कुछ अधिक रमणीक विषय प्राप्त करनेवाले असुर अर्थात् भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देव होते हैं उनसे अधिक मनोज्ञ विषय पानेवाले कल्पवासी देव होते हैं । ऐसेर प्राणी भी जय इंद्रियोंकी तृष्णासे पीड़ित रहते हुए दुःख नहीं सहसकनेसे विषयोंमें रमण करते हैं तब क्षुद्र प्राणियोंकी तो बात ही क्या है ? प्रयोजन आचार्यके कहनेका यही है कि मोहकर्मके प्रेरे हुए ये संसारी प्राणी विषयचाहकी दाहमें मूर्छित होते हुए पुनः पुनः मृगकी तरह भांडलीमें जल जान दौड़ दौड़कर कष्ट उठाते हैं परन्तु अपनी विषयवासनाके कण्टको शांत नहीं कर सके हैं। यह सब अज्ञान और मोहका महात्म्य है। ऐसा जान केवलज्ञानकी प्राप्तिका उपाय करना योग्य है जिससे यह अनादि रोगकी नड़ कट जावे और आत्मा सदाके लिये सुखी हो जावे। यहां वृत्तिकारने जो गर्म लोहेका दृष्टांत दिया है-उसका मतलब यह है कि जैसे गर्म लोहा चारोंवरफसे पानीको खींच लेता है वैसे चाहकी दाहसे त्रासित हुआ मनुष्य विषयभोगोंको खींचता है ॥ ६ ॥