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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३६ विना) पर्यायफे विना (त्यि) नहीं रहता है। यहां वृसिकारने 'मुफ जीवमें घटाया है कि सिद्ध पर्यायरूप शुद्ध परिणागको छोड़. कर शुद्ध जीव पदार्थ नहीं होता है क्योंकि यद्यपि परिणाम और . परिणामीसंज्ञा, संख्या, लक्षण प्रयोगनकी अपेक्षा भेद है, तो भी प्रदेश भेद न होनेसे अमेह है। तथा (इह ) इस जगतः । परिणामो ) परिणाम ( अत्थं विणा ! पदार्थले बिना नहीं होता है। अर्थात् शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप है लक्षण सिक्षा ऐसी सिद्ध पर्यायरूप शुद्ध परिणति मुक्तरूप भात्म पदाथके बिना नहीं होती है क्योंकि परिणाम परिणामी, संज्ञादि भेद होनेपर मो प्रदेशोंका भन्न नहीं है । (दव्यगुणपजत्यो ) द्रव्यगुण पर्यायो उडरा हुआ (अन्यो) पदार्थ (अस्थित्तणिवत्तो) अपने अस्तित्वमें रहनेवाला अर्थात् अपने अस्तिपने सिद्ध होता है। यहां शुद्ध आत्मामें लगाकर कहते हैं कि आत्म स्वरूप तो द्रव्य. है, उसमें केवल ज्ञानादि गुण हैं तथा मिनप पर्याय है । शुद्ध आत्म पदार्थ इस तरह द्रव्य गुण पर्याय ठहरा हुआ है जो धर्ण पदार्थ, पर्ण द्रव्य पीतपना आदि गुण तथा कुंठलादि पर्यायोंमें तिष्ठनेवाला है। ऐसा शुद्ध द्रव्य गुण पर्यायका आधारभूत जो शुद्ध स्तिपना उससे. परमात्म पदार्थ सिद्ध है जैसे सुवर्ण पदार्थ सुवर्ण द्रव्य गुण पर्यायकी सत्तासे सिद्ध है। यहां यह तात्रय कि जैसे मुक्त जीवमें द्रव्य गुण पर्याय परस्पर भविशाभूत दिखाएं गए हैं तैसे सप्तारी जीयमें भी मतिज्ञानादि विभाष गुणोंफे तथा कर नारकादि त्रिभाव पर्यायोंक होते हुए नय विभाग Times जान लेना चाहिये । वैसे ही पुद्गलादिके भीतर भी।