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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [३३७.. चार लक्षण पिथ्यादृष्टीमें नहीं होते इसीका संकेत बाचार्य ने गाथा जिया है ऐसा झलकता है। और यह बात बहुत ही ठीक मालूम पड़ती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टीके चित्तमें आत्माका श्रद्धान न होनेसे केवल अपने स्वार्थका ही ध्यान होता है । इसलिये उसके चित्त न दयाभाव सच्चा होता है, न दयारूप वर्तन होता है।
वाम्लब सम्यक्तभाव ही कार्यकारी है यही सर्व गुणोंका बीज है ।। २३ ॥
उत्थानिका-आगे यह पहले कह चुके हैं कि द्रव्य, गुण पर्णयका ज्ञान न होनेसे मोह रहता है इसी लिये अब भाचार्य बागमके अभ्यासकी प्रेरणा करते हैं अथवा यह पहले कहा था कि द्रव्यपने, गुणपने व पर्यायपनेके द्वारा परहंत, भगवानका स्वरूप जाननेसे नात्माका ज्ञान होता है। ऐसे आत्मज्ञानके लिये आगमके अम्घासकी अपेक्षा है इस प्रकार दोनों पातनिकाओंको मनमें धरकर भाचार्य मागेका सूत्र कहते हैं- . जिणतत्वादो अहे पच्चक्लादीहिं बुज्झदो नियमा खीयदि मोहोच्यो, तन्हा सत्थं समधि ॥९३ जिनशानादर्थान् प्रत्यक्षादिभिवुध्यमानस्य नियमात् । . क्षीयवे भोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ॥ ९३ ।।
सामान्यांप-जिन शास्त्रके द्वारा पदार्थोंको प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे जाननेवाले पुरुषके नियमसे मोइका समूह नष्ट हो गाता है इसलिये शास्त्रको अच्छी तरह पढ़ना योग्य है। .