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श्रीभवचनसार भाषाटीका। [१२५ भावार्थ-इस गांथामें आचार्यने ज्ञानके सर्वव्यापकपनेको और भी साफ किया है और केवलज्ञानकी महिमा दर्शाई है। 'ज्ञान यद्यपि आत्माका गुण है और उन ही प्रदेशोंमें निश्चयसे ठहरता है जिनमें मात्मा व्यापक है व जो आत्माके निज प्रदेश हैं तथापि ज्ञानमें ऐसी स्वच्छता है कि धर्म जैसे दर्पणकी स्वच्छतामें दर्पणके विषयमृत पदार्थ दर्पणमें साफ साफ झलकते हैं इसीसे दर्पणको आदर्श व पदार्थोंका झलझानेवाला कहते हैं वैसे सम्पूर्ण जगतके पदार्थ अपने तीन कालवी पर्यायोंके साथमें ज्ञानमें एक साथ प्रतिविम्बत होते हैं इसीसे ज्ञानको सर्वंगत या सर्वव्यापी कहते हैं। जिसतरह जानको सर्वगत कहते हैं उसी तरह यह भी कहसक्ते हैं कि सर्वपदार्थ भी ज्ञानमें सलफते हैं अर्थात सर्पपदार्थ ज्ञानमें समागए । निश्चय नयसे न ज्ञान आत्माके प्रदेशोंको छोड़कर ज्ञेय पदार्थोके पास जाता है और न ज्ञेय पदार्थ अपने २ प्रदेशों को छोड़कर ज्ञानमें आते हैं कोई किसी में जाता माता नहीं तथापि व्यवहार नयसे जब ज्ञानज्ञेयका ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है तब यह कहना कुछ दोषयुक्त नहीं है कि अब सर्व ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होते हैं तप जैसे ज्ञानज्ञेयोंमें फैलने के कारण सर्वगत या सर्वव्यापक हैं वैसे पदार्थ भी ज्ञान प्राप्त, गत या व्याप्त हैं। दोनोंशा निमित नमित्तिक सम्बन्ध है । ज्ञान और ज्ञेय दोनोंकी सत्ता होनेपर यह स्वतः सिद्ध है कि ज्ञान उनके आकारोंको ग्रहण करता है और ज्ञेय अपने आकारोंको ज्ञानको देते हैं। तथा पदार्थ ज्ञानमें तिष्ठते हैं ऐसा कहना किसी भी तरह अनुचित नहीं है। यहां यह भी दिखलानेका मतलब है कि