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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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'पाता है । जो साधु हिंसादि पांच पाप त्यागकर अपने आत्माको I स्थिर करता है उसी अनुपम चारित्र होता है और वही पंचम गतिको ले जाता है। ऐसा जान शुद्धोपयोगको ही धर्म जान उसी हीकी निरंतर भावना करनी योग्य है ॥ १८ ॥
उत्थानका- आगे आचार्य महाराजने
पहली नमस्कारकी गाथा " उवसंपयामि सम्मं " आदिमें जो प्रतिज्ञा की थी । उसके पीछे " चारित खलु धम्मो " इत्यादि सुत्रसे चारित्रके धर्मना व्यवस्थापित किया था तथा " परिणमदि जेण दव्वं " इत्यादि सूत्र से आत्मा धर्मपना कहा था इत्यादि सो सब शुद्धोपयो प्रसादसे साधने योग्य है । अब यह कहते हैं कि निश्चयरत्नत्रयमें परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म है । अथवा दूसरी पातनिका यह है कि सम्यक्त विना सुनि नहीं होता है, ऐसे मिथ्यादृष्टो भ्रमणसे धर्म सिद्ध नहीं होता है, तब फिर किस तरह श्रमण होता है ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर देते हुए इस ज्ञानाधिकारको संकोच करते हैं ।
जो हिदमोहदिट्टी आगमकुललो विरागचरियमि । अमुट्ठिदो महपा, धम्मोत्ति विसेलिदो समणो ॥ ९९
यो निहतमोहदृष्टिरागम कुशलो विरागचरिते ।
अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषितः श्रमणः ॥ ९९ ॥
सामान्यार्थ - जिसने दर्शन मोहको नष्ट कर दिया है, जो आगम ज्ञानमें कुशल है व वीतराग चारित्रमें लीन है तथा महात्मा है वही मुनि धर्म है ऐसा कहा गया है ।