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३५८] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । • है, उसीको ध्याता है, उसीका अनुभव करता है तथा उसी दी
अन्य द्रव्योंको न स्पर्श करता हुआ विहार करता है सो ही सवश्य शीघ्र नित्य उदयरूप शुद्धात्माको प्राप्त कर लेता है। जो कोई व्यवहार मार्गमैं अपनेको स्थापित करके इस निश्चय मार्गको छोड़कर द्रव्यलिंगमें ममता करते हैं और तत्त्वज्ञानसे रहित हो जाते हैं वे अब भी नित्य उद्योतरूप, अखंड, एक, अनुपमज्ञानमई स्वभावसे पूर्ण तथा निर्मल समयसारको नहीं अनुभव करते हैं। जो व्यवहार मार्गमें मूढ़ बुन्हि हैं वे मनुष्य निश्चयको नहीं अभ्यास करते हैं और न परमार्थको पाते हैं, जैसे जो चावलकी भूसीमें चाइलों का ज्ञान रखते हैं वे सदा तुपको ही चादळ जानते हुए तुषका ही लाभ करते हैं, चावलको कभी नहीं पाते हैं।
श्री योगेन्द्राचार्यने योगसारमें यही कहा हैजो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असहसरिधिभिष्णु । सो जाणइ सच्छइ सयलु सासयसुक्खहली ॥१४॥ जो ण वि जाणइ अप्प परु ण वि परभाव चरवि ! जो जाणत सच्छइ सयल्लु ण हु सिवमुक्ख लहेवि ॥१५॥ हिंसादिज परिहारकरि जो अप्पाहु ठदेइ ।। जो बीअउ चारित्त मुणि जो पंचमगइ णेइ ॥१०॥
भावार्थ-जो अपने आत्माको मशुचि शरीरसे भिन्न शुद्ध रूप ही अनुभव करता है वही अविनाशी मतींद्रिय सुखमें लीन होता हुआ सर्व शास्त्रोको जानता है। जो आत्मा अनात्माको
नहीं पहचानता है और न परभावको ही त्यागता है वह सर्व • शास्त्रोंको जानता हुआ भी नहीं जानता हुमा मोक्ष सुखको नहीं