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श्रीमवचनसार भाषाका |
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पांचा दोष यह है कि इस इंद्रियसुखके भोग में समताभाव नहीं रहता है एक विषयको भोगते हुए दूसरे विषयकी कामना हो जाती है अथवा यह सुख एकसा नहीं रहता है - हानि वृद्धिरूप है । इस तरह इन पांचों दोपोंसे पूर्ण यह इंद्रियसुख त्यागने योग्य है । अनन्तकाल इस संसारी प्राणीको पांचों इन्द्रियोंको भोगते हुए बीता है परन्तु एक भी इन्द्री अभीतक तृप्त नहीं हुईं है । जैसे समुद्र कभी नदियोंसे तृप्त नहीं होता है वैसे कोई भी प्राणी विषयभोगों से तृप्त नहीं होता । इसलिये यह सुख वास्तवमें सुखदाई व शांतिकारक नहीं है। जबकि आत्माके स्वभाव के अनुभवसे जो अतींद्रियसुख पैदा होता है वह इन पांचों दोषोंसे रहित तथा उनके विरोधी गुणों से परिपूर्ण है । आत्मीक सुख स्वाधीन है क्योंकि वह अपने ही आत्माके द्वारा अनुभव में आता है उसमें पर वस्तुके ग्रहणकी जरूरत नहीं है किन्तु परवस्तुका त्याग होना ही इस सुखानुभवका कारण है । आत्मिक सुख सर्व वाघामसे रहित अव्यावाघ तथा निराकुल है । इस सुखको भोगते हुए न आत्मा में कोई कष्ट होता है न शरीरमें कोई रोग होता है । उल्टा इसके इस सुखके भोग से मात्मा और शरीर दोनोंमें पुष्टि याती है, आत्माका अन्तरायकर्म हटता है जिससे आत्मबीर्य बढ़ता है । परिणामोंमें शांति शरीर रक्षक जब कि अशांति शरीर नाशक है। यह प्रसिद्ध है कि चिंता चिता समान, क्रोध दावाग्नि समान शरीर के रुधिरादिको जला देते हैं। इससे स्वरूप के अनुभवसे शरीर स्वास्थ्ययुक्त रहता है । आत्मीकसुख कर्मबन्धका कारण न होकर कर्मबन्धके नाशका बीज है, क्योंकि आत्मानुभव में जो वीतरागता