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३०८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। उपदेश करता है तथा भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा कल्प. वासी देवोंके इन्द्र जिनको किसी सांसारिक भावसे नहीं किन्तु उसी शुद्ध पदकी भावना करके पूजते हैं तथा जब अधातिया कोका भी अभाव हो जाता है तब वह देव शरीर त्याग उई. गमन स्वभावसे ऊपर जाकर लोकाकाशके अंत ठहर जाते हैं तब उनको सिद्ध परमात्मा कहते हैं । सिद्ध अवस्थामें यह परमात्मा निरंतर स्वानुभूतिमें रमण करते रहते हैं। वहां न कोई चिन्ता है,न आकुलता है, न बाधा है । जिन आत्माओंके भीतर संसारकी वासनासे राग है वे शुभोपयोगमें ही रहते हुए संसारके ऊंच नीच पदोंमें भ्रमण किया करते हैं उनको आत्माका शुद्ध अविनाशी सिद्ध पद कभी प्राप्त नहीं होता है। इसलिये तात्पर्य यह है कि इसी शुद्ध पदके लिये शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये । श्री समयसार कलशोंमें श्री अमृतचंद्राचार्यनीने कहा है। पदमिद ननु कर्मदुरासदं सहजयोधकला मुलभं किल । तत इदं निजबोधकलावलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥१॥ ____ भाव यह है कि यह शुद्ध पद शुभ कर्मोके द्वारा प्राप्त नहीं हो सका। यह पद स्वाभाविक ज्ञानकी फला द्वारा ही सहनमें मिलता है इसलिये जगतके जीवोंको आत्मज्ञानकी कलाके बलसे इस पदके लिये सदा यतन करना चाहिये ॥ ८४ ॥
त्यानिका-आगे सूचना करते हैं कि जो कोई इस अंकार निर्दोष परमात्माको मानते हैं, अपनी श्रद्धामें लाते हैं.
ही अविनाशी आत्मीक सुखको पाते हैं