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श्रीमवचनसार भापार्टीका। [२७ णमन रूप है अर्थात् जब आत्मा परभावमें न परिणमन करके अपने स्वभाव भावमें परिणमन करता है तब वह मात्मा ही धर्म रूप हो जाता है । इससे यह बात भी बताई है स्वभाव या गुण हरएक पदार्थमें कहीं भलगसे पाते नहीं न कोई किसीको कोई गुण या स्वभाव दे सका है। किंतु हरएक गुण या स्वभाव उस वस्तुमें जिसमें वह होता है उसके सर्व ही अंशोंमें व्यापक होता है। कोई द्रव्य के साथ न कोई गुण मिलता है न कोई गुणा द्रव्यको छोड़कर जाता है। जैन दर्शनका यह अटल सिद्धांत है कि द्रव्य और गुण प्रदेश अपेक्षा एक हैं-जहां द्रव्य है वहीं गुण हैं। तथा यह भी जैन सिद्धांत है कि द्रव्य सदा द्रवन या परिणमन किया करता है । अर्थात गुणोंमें सदा ही विकृति भाव या परिणति हुआ करती है इसलिये द्रव्यको गुण पर्यायवान् कहते हैं। द्रव्यके अनंते गुण प्रति समय अपनी अनंत पर्यायोंको प्रगट करते रहते हैं और क्योंकि हरएक गुण द्रव्यमें सर्वांग व्यापक है इस लिये अनंत गुणोंकी अनंतपर्याय द्रव्यमें सर्वांग व्यापक रहती हैं। इनमें से विचार करनेवाला व कहनेवाला निस पर्यायपर दृष्टि रखता है वह उसके लिये उस समय विविक्षित या मुख्य हो नाती है, शेष पर्यायें अविविक्षित या गौण रहती हैं । क्योंकिरागद्वेष मोह संसार है; इमलिये सम्यक्त सहित वीतरागता मोक्षः है या मोक्षका मार्ग है । आत्मामें ज्ञानोपयोग मुख्य है इसीके द्वारा आत्मा प्रकाश रहता है व इस हीके हारा आप और परको जानता है । जब यह आत्मा अपने ही मात्माके स्वरूपको जानता हुभा रहता है अर्थात 'बुद्धिपूर्वक निज आत्माके सिवाय अन्य