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२६] श्रीप्रवचनसार भाषाका ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव्य) द्रव्य (जेण) जिस अवस्था या भावसे ( परिणमदि) परिणमन करता है या वर्तन करता है ( तक्कालं) उसी समय वह द्रव्य ( तम्मयत्ति ) उस पर्याय या भावके साथ तन्मई हो जाता है ऐसा ( पण्णत्त.) कहा गया है । (सम्हा ) इसलिये (धम्म परिणदो) धर्मरूपं भावसे वर्तन करता हुआ (मादा) आत्मा (धम्मो) धर्मरूप (मुणेयब्बो) माना जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध मात्माके स्वभावमें परिणमन होते हुए जो भाव होता है उसे निश्चय धर्म कहते हैं । तथा पंच परमेष्ठी आदिकी भक्ति रूपी परिणति या भावको . व्यवहार धर्म कहते हैं। क्योंकि अपनी २ विवक्षित या अविविक्षित पर्यायसे परिणमन करता हुआ द्रव्य उस पर्यायसे तन्मयो होमाता है इसलिये पूर्वमें कहे हुए निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मसे परिणमन करता हुमा आत्मा ही गर्म लोहके पिंडकी तरह अभेद नयसे धर्म रूप होता है ऐसा जानना चाहिये । यह भी इसी लिये कि उपादान कारणके सदृश कार्य होता है ऐसा सिद्धांतका वचन है । तथा यह उपादान कारण शुद्ध अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें रागद्वेषादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान तथा भागमकी भाषासे शुक्ल ध्यान शुद्ध उपादान कारण है । तथा अशुद्ध मात्मा रागादि रूपसे परिणमन करता हुआ अशुद्ध निश्चय नयसे अपने रागादि भावोंका अशुद्ध उपादान कारण होता है। .
भावार्थ-इस गाथामें भाचार्यने यह बात बताई है कि धर्म कोई भिन्न वस्तु नहीं है-आत्माका ही निन स्वभावमें परि