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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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पदार्थ सुख नहीं देते हैं । सांसारिक सुख भोगनेकी एक प्रकारकी तृष्णाकी दाह होती है उसकी शांतिके लिये इन्द्रादिक देव व चक्रवर्ती आदि भी विषयसुख भोगते हैं परन्तु वह तृष्णा बिषयभोग से कभी भी शांत नहीं होती है उलटी बढ़ती जाती है । उनकी शांतिका उपाय नित्र आत्मा के मननसे उत्पन्न समतारूपो अमृतका पान है। आत्मसुख उपादेय है, विषयसुख हेय हैं, ऐसा जो शृद्धानमें लाता है वही सम्पही है । वहा मोहका नाशकर देहके द्वारा होनेवाले सर्वं दुःखोंको मेट देता है । जो अरहंत परमात्माके द्रव्यगुण पर्यायको 1 पहचानता है वहीं अपने आत्माको जानता है । जो निश्चय नबसे अपने आत्माको जानकर भेदज्ञानके द्वारा आपमें ठहर जाता है वही निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षके कारण भावको प्राप्तकर लेता है । ऐसे भावको मम जो माधु अवस्थामें साधुका चारित्र पालता हुमा वीतराग चारित्ररूप होकर निजानन्दका स्वाद पाता है वही यथार्थ भाव मुनि है । जिसके निश्चय चारित्र नहीं है वह द्रव्यलिंगी है तथा मोक्षमार्ग में गमन करनेवाला नहीं है। श्री अरहंत भगवान और भावश्रमण ही वारंवार नमस्कार करने व भक्ति करनेके योग्य हैं । उपासक इनकी यथार्थ सेवा करके पुण्य बांध उत्तम देव या मनुष्य होकर परम्पराय मोक्षके पात्र होजाते हैं ।
इस ग्रन्थ में आचार्य शुद्धोपयोग या साम्यभावकी यत्रतत्र महिमा कहकर रागद्वेष मोह तन आत्मज्ञान व आत्मध्यान करनेकी ओर जीवको लगाकर समताके रमणीक परम शांत समुद्र में स्नान करनेकी प्रेरणा की है । यदी इस ग्रन्थका सार है । 'जो कोई वारवार इस भाषटी को पढ़ेंगे उनको आत्मलाभ होगा ।