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२१८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। भी मूर्तीक पदार्थोके ही कुछ भागको मर्यादा लिये हुए जानते हैं अधिक न जान सकनेकी असमर्थता इनमें भी रहती है । इत्यादि. कारणोंसे उपादेय रूप तो एक निज स्वाभाविक केवलज्ञान ही है । इसी लिये इस स्वभावकी प्रगटताका भाव चित्तमें रखकर निरन्तर स्वानुभवका मनन करना चाहिये ।। ५५॥
उत्थानिका-आगे यह निश्चय करते हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियोंसे होनेवाला ज्ञान अपने १ रूप रस गंध आदि विषयोंको भी एक साथ नहीं जानसक्ता है इस कारणसे त्यागने योग्य है । फासो रसो य गंधो, दण्णो सहोय पुग्गला होति । अक्खाणं ते अक्खा, जुगवं ते णेव गेण्हति ॥५॥ स्पर्शी रसश्च गंधो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्चान्नैव गृहन्ति ॥५६॥
सामान्यार्थ-पांच इन्द्रियों के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शम ये पांचों ही विषय पुद्गल द्रव्य हैं । ये इंद्रिये इनको भी एक समयमें एक साथ नहीं ग्रहण करसती हैं। . . ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( अक्खाणं) स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियोंके (फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य ) स्पर्श. रस, गंध, वर्ण और शब्द ये पांचों ही विषय ( पुग्गला होति) पुद्गलमई हैं या पुद्गल द्रव्य हैं या मूर्तीक हैं ( ते अक्खा ) वे इंद्रिये ( ते णेव ) उन अपने विषयोंको भी ( जुगवं ) एक समयमें एकसाथः (ण गेण्हति) नहीं ग्रहण करसती हैं-नहीं मानसती हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे सब