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श्रीnaarera भापाटीका |
• तरह
होता वहां लामांतरायका सर्वथा क्षय हैं तथा सातावेदनीयका परम उदय है ! श्वेताम्बर आम्नायमें जो केवलीके क्षुधाकी बाधा बताकर भोजन करना बताया है उसका वृत्तिकारने बहुत अच्छी समाधान कर दिया है । केवलज्ञानीके अतीन्द्रिय स्वाभाविक ज्ञान तथा अतीन्द्रिय स्वाभाविक व्यानन्द रहता है, - कर्मोदयकी प्रधानता मिटकर स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है, - तात्पर्य यह है कि परमज्ञान स्वरूप तथा परमानंदमई केवलोकी • अवस्थाको उपादेय मानकर उसकी प्राप्तिके लिये शुद्धोपयोगकी -भावना करनी योग्य है ।
इस तरह अनन्तज्ञान और सुखकी स्थापना करते हुए प्रथम -गाथा तथा केवलीके भोजनका निराकरण करते हुए दूसरी गाथा इस तरह दो गाथाएं पूर्ण हुईं ।
इति सात गाथाओंके द्वारा चार स्थलोंसे सामान्यसे सर्वज्ञ 'सिद्धि नामका दूसरा अंतर अधिकार समाप्त हुआ !
उत्थानिक सूची सहित आगे ज्ञान प्रपंच नामके - अंतर अधिकारमें ३३ तेतीस गाथाएं हैं उनमें आठ स्थल हैं 'जिनमें आदिमें केवलज्ञान सर्व प्रत्यक्ष होता है ऐसा कहते हुए 'परिणमदो खलु' इत्यादि गाथाएं दो हैं फिर आत्मा और ज्ञानके निश्चयसे असंख्यात प्रदेश होनेपर भी व्यवहारसे सवव्यापी बना है इत्यादि कथनी मुख्यतासे "आदा णाणपमाणं" इत्यादि गाथाएं पांच हैं। उसके पीछे ज्ञान और ज्ञेय पदार्थोंका एक - दूसरे में गमन के निषेधकी मुख्यतासे "णाणी णाणसहावो” इत्यादि -गाथाएं पांच हैं | आगे निश्चय और व्यवहार केवली के प्रतिपादन आदि