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श्रीमवचनसार भाषाटीका। [९१ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने बताया है कि मरहतकि मतिज्ञानादि चार ज्ञानका अभाव होनेसे तथा केवलज्ञानका प्रकाश होनेसे उपयोगकी प्राप्ति निन आत्मामई है। उपयोग पांच इंद्रिय तथा मनके द्वारा परिणमन नहीं करता है। परोक्षज्ञानका अभाव होगया है । प्रत्यक्ष ज्ञान प्रगट होगया है । इसलिये छमस्थ मत्प ज्ञानियों के जो इंद्रियों के द्वारा पदार्थ ग्रहण होता था व मनमें सकल्प विकल्प होते थे सो सब मिट गए हैं । इसलिये इंद्रियोंके द्वारा पदार्थ भोग नहीं है न इंद्रियोंकी बाधा है न उनके विषयकी चाहका दुःख है न इंद्रियोंके द्वारा सुख है । क्योंकि देहके ममत्वसे सर्वथा रहित होनेसे अरहंतोंकी सन्मुखता ही उस ओर नहीं है इसलिये शरीर सम्बन्धी दुःख या सुख केवली के अनुभवमें नहीं आता है । केवली मन्द सुगन्ध पवन व समवशरणादि लक्ष्मी
आदि किसी भी पदार्थका भोग नहीं करते इसलिये इन पदार्थोक द्वारा केवलज्ञानीको कोई सुख नहीं है न शरीरकी दशाकी अपेक्षासे कभी कोई दुःस्व होसक्ता है, न उनको भूख प्यासकी बाधा होती, न रोगकी माकुलता होती, न कोई थकन होती, न
खेद होता-देह सम्बन्धी सुख दुःखका वेदन केवीके नहीं है इसलिये कभी क्षुषाके भावका विकार नहीं पैदा होता है न मैं निर्बल हूं यह भाव होता है । उनका भाव सदा सन्तोषी परमानंद मई स्वात्माभिमुखी होता है। केवली भगवानका शरीर दार्घकालतक विना नासरूप भोजन किये भी पुष्ट रहता है क्योंकि उनके लेप आहारकी तरह नोकर्म आहार है जिससे पौष्टिक वर्गणाएं शरीरमें मिलती रहती हैं । केवलीका शरीर कभी निर्बल नहीं