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६४] श्रीप्रवचनसार अपायका! 'और जानना कि आचार्य ने मूल गाथामें कर्म रमको वर्णन किया है इससे यह सिद्ध किया है कि कर्म पुदल द्रव्यसे रची हुई कार्माण वर्गणाएं हैं जो वास्तवमें मूल द्रव्य है कोई कल्मित नहीं है। कर्म बंकी बात मन लोग भी करते हैं परन्तु मनैन मंथोंमें स्पष्ट रीतिसे कर्म बर्गणाओं के बंध, फल व तिरने मादिका वर्णन नहीं है। जैन ग्रंथों में वैज्ञानिक रीतिगे मोशे पुलमई बतलाकर उनके कायको व उनके क्षयको वशाया है । दुसरा अभिमान यह भी सूचित किया है कि आत्मामे पूर्ण ज्ञानकी शक्ति स्वयं विद्यमान है कुछ नई पैदा नहीं होती है। कम रजके कारण शक्तिकी प्रगटता नहीं होती है । शक्तिको प्रगट होना आवश्पना ही कर्म युद्धका बासर है। इसलिये शुद्धोश्योगके श्लसे कम पुद्गल जामासे भिन्न हो जाते हैं तब आत्माशी शशिष्य प्रगट होनाती हैं ।
, उत्थानिका-मागे कहते हैं कि सुद्धोपयोगसे उत्पन्न जो शुद्ध आत्मा लाम है उसके होने भिन्न कारकली. भावश्यक्ता नहीं है । किन्तु अपने मात्मा ही के आधीन है। तह सो बसहायो, लन्धर सपलोगपदिमाहिदो। भूदो सयलेवादा, हवधि समुसि णिहिटो॥ १६॥
तथा त लब्धत्वभावः सर्वशः सर्वलोकपतिमहितः । भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्टः ॥ १६ ॥
सामान्यार्थ-तथा वह आत्मा स्वयमेव ही विना किसी परकी सहायतासे अपने स्वभावको प्राप्त हुआ सर्वज्ञ तीन लोका पति तथा इन्द्रादिसे पूजनीय होनाता है इसी लिये उसको स्वयंभू कहा गया है।